पीपलू (रामबाबू विजयवर्गीय) । क्या आपको आज दो जून की रोटी नसीब हुई। अगर नहीं हुई है तो जरूर खा लें। फिर न कहें कि यह नहीं मिली। रोटी के साथ फोटो वॉट्सएप्प और फेसबुक पर दो जून की रोटी को लेकर खूब बातें हो रही हैं। इस तरह दो जून की रोटी के खूब मैसेज आए।
जानकारों ने बताया कि दो जून की रोटी का मुहावरा उस समय प्रचलन में आया होगा, जब किसी को दो समय की रोटी नहीं मिलती होगी। लेकिन आज भी कई परिवार ऐसे हैजिन्हें दो समय की रोटी नहीं मिलती। ऐसे में दो जून की रोटी का मुहावरा आज भी असल जिन्दगी में प्रयोग में लाया जा सकता है।
दो जून की रोटी का इतिहास
जानकारी अनुसार दो जून की रोटी, वैसे तो एक साधारण सा मुहावरा है, लेकिन इसका जून माह से कोई संबंध नहीं। यह भी अपुष्ट है कि यह कब और कहां से प्रचलित हुआ, लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ कुछ अलग ही है। बचपन में पढ़ी गई किताबों में हमने ऐसे-ऐसे मुहावरे पढ़े जिनका अर्थ जीवन की गहराइयों तक जाता है। ऐसा ही एक मुहावरा दो जून की रोटी भी है। हिन्दी व्याख्याता मुकेश कुमार चौधरी ने बताया कि यह भाषा का रूढ़ प्रयोग है। यह साहित्यिक शब्द है। सदियों से प्रचलन में है। किसी घटनाक्रम की विशेषता बताने के लिए प्राचीन समय में मुहावरों को जोडक़र प्रयोग में लाया जाता था। यह क्रम आज तक जारी है।
दो जून मतलब दो समय का खाना
हिन्दी व्याख्याता रविन्द्र विजयवर्गीय से पूछा गया कि हम दो मार्च या दो अपै्रल की रोटी क्यों नहीं कहते, तो उन्होंने कहा कि दो जून की रोटी का अर्थ कोई महीना नहीं, बल्कि दो समय (सुबह-शाम) का खाना होता है। साधारण शब्दों में इसका अर्थ कड़ी मेहनत के बाद भी लोगों को दो समय का खाना नसीब नहीं होना, होता है।
जून का मतलब समय भी
सुनील कुमार चंदेल ने बताया कि असल में आज दो जून तारीख है, लेकिन दो जून का मतलब समय भी होता है। दो जून की रोटी का मतलब है दो समय की रोटी। दो बार भोजन।
यह अवधि भाषा का शब्द है
राउमावि बनवाडा प्रधानाचार्य एवं संस्कृत विद्वान पन्नालाल वर्मा ने बताया कि दो जून अवधि भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ वक्त या समय होता है। इससे ही यह कहावत अस्तित्व में आई है।
दो जून की रोटी का दिखा नजारा
झिराना में टोडारायसिंह मार्गपर कचरे के ढेर से प्लास्टिक, कांच की बोतले ढूंढते हुए दो बच्चों को देखा गया। यह बच्चे इन बोतलों को बेचेंगे, तब जाकर उन्हें दो वक्त की रोटी नसीब होगी। इन बच्चों में से एक के शरीर पर तो कपड़े भी नहीं थे। ऐसे नजारे तहसील के हर गांव में खानाबदोश लोगों में देखे जा सकते है।
